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संक्रमण / अजित कुमार

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|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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चलते थे जिनपर
 
वे सड़कें भी मुड़-तुड़ कर
 
खतम हो गई थी, ।
 
सब आवाजें
 
कभी यहाँ, कभी वहाँ –थोड़ी या बहुत देर—
 
बोल : सो गई थीं ।
 
दोस्त
 
सुबह-शाम, रात-रात भर
 
बातें कर: चुप थे,
 
अब रीते थे ।
 
और अधिक मादकता, आकुलता, विह्ललता
 
जगा नहीं पाते थे दिन वे—
 
जो बीते थे।
 
हर क्षण जो बढती थी
 
वही उम्र कहीं, किसी जगह
 
रुक गई थी,
 
और रात—
 
पहाड़ी पर : कुछ घंटों के खातिर ? नहीं—
 
सदा-सर्वदा के लिए झुक गई थी ।
 
पेड़ों-पौधों-फूलों का उगना
 
बन्द था ,
 
पंचम स्वर तक पहुँचा हुआ गीत
 
मन्द था।
 
बहुत तेज़ गति से
 
बहनेवाली धारा अब वर्षा की नदी-सदृश
 
रेती में खोई थी ।
 
फ़सल : कट-कटा कर, सब
 
खतम हो चुकी थी,
 
जो साधों से बोई थी ।
 
वह ठहरी-ठहरी वय ।
 
निर्मम जड़ता की जय ।
 
बहरी स्थिरता का भय्।
 
लहरों-काँटों-चहारदीवारों :
 
अवरोधों-कुंठा-सीमा-भारों :
 
का दुर्जर घेरा था ।
 
यह था : जो मेरा था ।
 
इसीलिए घेरा तोड़ा मैंने,
 
जो ‘मेरा’ था : वह छोड़ा मैंने ।
 
नई धवलगात रात ,
 
नवल ज्योति-स्नात प्रात,
 
जाग्रत जीवन, कलरव,
 
नए जगत, नव अनुभव ,
 
भिन्न दृश्य, पथ, चित्रों,
 
स्नेही-निश्छ्ल मित्रों
 
के लिए प्रतीक्षा की ।
 
इनसे फिर दीक्षा ली ।
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