:::दुहराते अलि निशि-मूक तान।
सौरभ का फैला केश-जाल,
करतीं समीरपरियां विहार;
गीलीकेसर-मद झूम झूम,
पीते तितली के नव कुमार;
:::मर्मर का मधु-संगीत छेड़,
देते हैं हिल पल्लव अजान!
फैला अपने मृदु स्वप्न पंख,
उड़ गई नींदनिशि क्षितिज-पार;
अधखुले दृगों के कंजकोष--
पर छाया विस्मृति का खुमार;
:::रंग रहा हृदय ले अश्रु हास,
:::यह चतुर चितेरा सुधि विहान!
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