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ताजमहल की छाया में / अज्ञेय

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|रचनाकार=अज्ञेय
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<poem>
मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ,
या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।
साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर-
तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।
मुझ में यह सामर्थ्य नहीं पर वह क्या कम कवि है मैं जो कविता कर पाऊँ,<br>में तन्मय होवेया कूँची में रंगों ही की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे ?हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय देख औरों का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।<br>साधन इतने नहीं कि पत्थर औरों के प्रासाद खड़े करही चरण-<br>तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।<br><br>चिह्न पावन आँसू से धोवे?
पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे<br>या रंगों की रंगीनी में कटु जगहम-जीवन खोवे ?<br>हो अत्यन्त निमग्नतुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये, एकरस, प्रणय देख औरों का-<br>रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलायेऔरों के ही चरणव्याकुल आत्म-चिह्न पावन आँसू निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी:क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से धोवे?<br><br>उमड़ा आये!
हम-मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलायेही हो महारानी,<br>देख रहे हैं दीर्घ युगों पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से अथक पाँव फैलाये<br>होता दानी!व्याकुल आत्म-निवेदन-सा जिस क्षण हम यह दिव्य कल्पना-पक्षी:<br>देख सामनें स्मारक अमर प्रणय काक्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आयेप्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी !<br><br>
मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम ही हो महारानी,<br>पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी!<br>जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का<br>प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी !<br><br> रचनाकाल/स्थल : २० दिसम्बर १९३५, आगरा<br><br/poem>
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