|संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय
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जो पास रहे
वे ही तो सबसे दूर रहे :
प्यार से बार-बार
जिन सब ने उठ-उठ हाथ और झुक-झुक कर पैर गहे,
वे ही दयालु, वत्सल स्नेही तो
सब से क्रूर रहे।
जो पास रहे<br>वे ही तो सबसे दूर रहे :<br>प्यार से बार-बार<br>जिन सब ने उठ-उठ हाथ और झुक-झुक कर पैर गहे, <br>वे ही दयालु, वत्सल स्नेही तो <br>सब से क्रूर रहे।<br><br> जो चले गये <br> ठुकरा कर हड्डी-पसली तोड़ गये<br>पर जो मिट्टी<br>उन के पग रोष-भरे खूँदते रहे,<br>फिर अवहेला से रौंद गये :<br>उसको वे ही एक अनजाने नयी खाद दे गाड़ गये :<br>उसमें ही वे एक अनोखा अंकुर रोप गये।<br>-जो चले गये, जो छोड़ गये, <br> जो जड़े काट, मिट्टी उपाट, <br> चुन-चुन कर डाल मरोड़ गये<br>वे नहर खोद कर अनायास<br>सागर से सागर जोड़ गये <br> मिटा गये अस्तित्व, <br> किन्तु वे <br> जीवन मुझको सौंप गये। <br><br/poem>