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सन्ध्या-संकल्प / अज्ञेय

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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यह सूरज का जपा-फूल
 
नैवेद्य चढ़ चला
 
सागर-हाथों
 
अम्बा तिरमिरायी को:
 
रुको साँस-भर,
 
फिर मैं यह पूजा-क्षण
 
तुम को दे दूँगा।
 
 
क्षण अमोघ है, इतना मैंने
 
पहले भी पहचाना है
 
इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं बांधता।
 
किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,
 
धर्म:
 
यह लोकालय में
 
धीरे-धीरे जान रहा हूँ
 
(अनुभव के सोपान!)
 
और
 
दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।
 
यह एकोन्मुख तिरोभाव—
 
इतना-भर मेरा एकान्त निजी है—
 
मेरा अर्जित:
 
वही दे रहा हूँ
 
ओ मेरे राग-सत्य!
 
मैं
 
तुम्हें।
 
 
ऐसे तो हैं अनेक
 
जिन के द्वारा
 
मैं जिया गया;
 
ऐसा है बहुत
 
जिसे मैं दिया गया।
 
यह इतना
 
मैंने दिया।
 
अल्प यह लय-क्षण
 
मैंने जिया।
 
 
आह, यह विस्मय!
 
उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।
 
उसे दिया।
 
इस पूजा-क्षण में
 
सहज, स्वतः प्रेरित
 
मैंने संकल्प किया।
 
 
<span style="font-size:14px">६ मार्च १९६३</span>
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