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जीवन / अज्ञेय

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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चाबुक खाए
 
भागा जाता
 
सागर-तीरे
 
मुँह लटकाए
 
मानो धरे लकीर
 
जमे खारे झागों की—
 
रिरियाता कुत्ता यह
 
पूँछ लड़खड़ाती टांगों के बीच दबाए।
 
 
कटा हुआ
 
जाने-पहचाने सब कुछ से
 
इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,
 
और अजाने-अनपहचाने सब से
 
दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन
 
उस ठण्डे पारावार से!
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