|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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{{KKCatKavita}}<poem>हम नदी के साथ-साथ<br>सागर की ओर गए<br>पर नदी सागर में मिली<br>हम छोर रहे:<br>नारियल के खड़े तने हमें<br>लहरों से अलगाते रहे<br>बालू के ढूहों से जहाँ-तहाँ चिपटे<br>रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल<br>हमारा मन उलझाते रहे<br>नदी की नाव<br>न जाने कब खुल गई<br>नदी ही सागर में घुल गई<br>हमारी ही गाँठ न खुली<br>दीठ न धुली<br>हम फिर, लौट कर फिर गली-गली<br>अपनी पुरानी अस्ति की टोह में भरमाते रहे। <br/poem>