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पेरियार / अज्ञेय

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
}}
{{KKCatKavita}}<poem>बकरी के बच्चे की मिमियाहट पर तिरता <br> वह चम्पे का फूल <br> काँपता गिरता <br> पल-भर घिरता <br> है कगार की ओट <br> भँवर की किरण-गर्भ <br> कलसी में: <br> अर्द्धमण्डली खींच <br> निकल कर बह जाता है। <br> <br>
और घाट की सँकरी सीढ़ी पर <br> घुटने पर टेक गगरिया <br> खड़ी बहुरिया <br> थिर पलकों को एकाएक झुका, <br> कर ओट भँवरती धूमिल बिजली को, <br> फिर उठा बोझ <br> चढ़ने लगती है। <br> <br>
ओ साँस! समय जो कुछ लावे <br> सब सह जाता है: <br> दिन, पल, छिन— <br> इन की झांझर में जीवन <br> कहा अनकहा रह जाता है। <br> बहू हो गई ओझल: <br> नदी पर के दोपहरी सन्नाटे ने फिर <br> बढ़ कर इस कछार की कौली भर ली: <br> वेणी आँचल की रेती पर <br> झरती बून्दों की <br> लहर-डोर थामे, ओ मन! <br> तू बढ़ता कहाँ जाएगा? <br>
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<span style="font-size:14px">(पेरियार केरल की एक नदी है जिसके किनारे कालडि में शंकराचार्य का जन्म हुआ था।)</span>
</poem>
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