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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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{{KKCatKavita}}कुछ है<brpoem>कुछ है जिस में मैं तिरता हूँ।<br>जब कि आस-पास<br>न जाने क्या-क्या झिरता है<br>जिसे देख-देख मैं ही मानों<br>कनी-कनी किरता हूँ।<br><br>
ये जो डूब रहे हैं धीरे-धीरे<br>यादों के खंडहर हैं।<br>अब मैं नहीं जानता किधर द्वार हैं<br>किधर आंगन, खिड़कियाँ, झरोखे;<br>पर ये सब मेरे ही बनाए हुए घर हैं।<br><br>
इतना तो अब भी है<br>कि चाहूँ तो पहचान लूँ<br>कि कौन इसमें बसते थे,<br>(मैंने ही तो बसाए थे,<br>मेरे इशारों पर हँसते थे),<br>पर उन के चेहरों और मेरी चाहों के बीच<br>आह, कितने पुराने, अन्धे, पर आज भी अथाह डर हैं!<br><br>
डूबते हैं, डूब जाने दो।<br>चेहरों और घरों के साथ<br>खाइयों और डरों को भी<br>लय पाने दो।<br>यह जो नदी है, यों तो मेरी अनजानी है<br>इतनी-भर देखी है कि पहचानूँ, बहुत पुरानी है।<br><br>
डूबे, सब डूब जाए,<br>तब एक जो बुल्ला उठेगा,<br>उभर कर फूटेगा,<br>और उस की रंगीनी का रहेगा—<br>क्या? कुछ नहीं!<br>तभी तो मेरा यह बचा हुआ भरम टूटेगा<br>यह सँचा हुआ, पर सच में सत्त्वहीन<br>
अहम् ढहेगा, ढहेगा।
</poem>
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