|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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{{KKCatKavita}}<poem> हाँ, भाई, <br> वह राह <br> मुझे मिली थी; <br> कुहरे में दी जैसे मुझे दिखाई <br> मैंने नापी: धीर, अधीर, सहज डगमग, द्रुत, धीरे— <br> आज जहाँ हूँ, वही वहाँ तक लाई। <br> <br>
यहाँ चुक गई डगर: <br> उलहना नहीं, मानता हूँ पर <br> आज वहीं हूँ जहाँ कभी था— <br> एक कुहासे की देहरी पर: <br> दीख रहा है <br> पार <br> रूप—रूपायमान—रूपायित— <br> पहचाना कुछ: जिधर फिर बढ़ूँ— <br> धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे, <br> हठ धर, <br> मन में भर <br> उछाह! <br> <br>
कौन कभी फिर लौट वहाँ आया, जिस पथ से <br> एक बार वह पार गया है? <br> नहीं, वही वहीं है कहीं और: <br> यह ठौर <br> नया है उतना ही जितनी यह राह, <br> कुहासा, देश-दिशा, यह समय-बिन्दु, <br> यह मैं भी: <br> सभी नया है— <br> नाता ही एक नहीं बदला: <br> वह एक खोजता राही <br> एक कुहासे की देहरी पर <br> लीक धरे पहचाने कुछ-कुछ की <br> बढ़ता हठ धर <br> अनजाने कुछ की ओर <br> भरे मन में उत्साह अतर्कित, निराधार! <br> <br>
रूप, <br> रूपायमान, <br> रूपायित। <br> यों गृहीत, <br> पहचाना। <br> फिर इस लिए अनृत <br> एकान्त झूठ! <br> <br>
वह कैसे होती यात्रा <br> जो पहुँचा कर चुक जाती? <br> झूठा होगा वह तीर्थ <br> सरोवर, नदी, महासागर का जो किनारा-भर होता। <br> जहाँ से अपने ही संकल्प <br> न बन जाते ललकार <br> नए अनजाने पानी में घुसने की। <br> ये सम्मुख फूल बहे जाते हैं: <br> पर क्या जाने वे किस के हैं? <br> क्या जाने वह डूबा, तैरा, <br> या तट पर ही फूल डाल कर लौट गया? <br> या—क्या जाने?—ये फूल स्वयं उस की भस्मी के ही <br> :::::प्रतीक हैं? <br> <br>
यह भी हो सकता है <br> कोई उस देहरी पर ही बैठ रहे: <br> <!---"बैठ रहे" ही ठीक है--->जो आएँ उन्हें असीसे, <br> जाएँ तो, उन्हें बता दे वे पहचाने गलियारे <br> जो पार स्वयं वह कर आया। <br> <br>
हो सकता है: पर मेरे द्वारा नहीं— <br> अब नहीं। <br> मैं जिस देहरी पर हूँ <br> तीर्थ नहीं, <br> वह सम्पराय है। <br> हठ में कमी नहीं है, <br> मेरा संकल्प भी डगमग, <br> किन्तु (उलहना नहीं) मानता हूँ मैं— <br> मुझे पूछना है अब—और खोजता हूँ उस को जिस से <br> ::::यह पूछ सकूँ— <br> 'वह दीख रहा है पार मुझे, <br> पर बोलो, <br> उस तक जाने का क्या है उपाय— <br> है क्या उपाय? <br> रूप: <br> रूप, <br> रूपायमान, <br> रूपायित। <br> स्पृष्ट। अनृत। <br> प्रव्रजित! <br> <br>
और कहाँ तक यही अनुक्रम! <br> कितना और कुहासा <br> कितनी देहरियों पर कितनी ठोकर? <br> कितना हठ? <br> कितने-कितने मन—कितना उछाह?' <br> <br>
है राह! <br> कुहासे तक ही नहीं, पार देहरी के। है। <br> मैं हूँ तो वह भी है, <br> तीर्थाटन को निकला हूँ <br> कांधे बांधे हूँ लकड़ियाँ चिता की: <br> गाता जाता हूँ— <br> 'है, पथ है: <br> वह जो रुक जाता है कूल-कूल पर बार-बार— <br> यों नहीं कि वह चुक जाता है: <br> पर तीर्थ यही तो होते हैं— <br> अनजाने—यद्यपि वांछित—सम्पराय: <br> हम होते ही रहते हैं वहाँ पार!' <br> <br/poem>