<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td> '''शीर्षक: '''पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको <br> '''रचनाकार:''' [[शीन काफ़ निज़ामअदम गोंडवी]]</td>
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<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप कोइन्सान अपने आप मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपकोजिस गली में कितना सिमट गया भुखमरी की यातना से ऊब करमर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब करहै सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरीआ रही है सामने से हरखुआ की छोकरीचल रही है छंद के आयाम को देती दिशामैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसाकैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुईलग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुईकल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन हैजानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
अब क्या हुआ कि ख़ुद थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को मैं पहचानता नहीं मुद्दत सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट कोडूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत सेघास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत सेआ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात मेंक्या पता उसको कि रिश्ते का कुहरा कोई भेड़ि़या है घात मेंहोनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थीमोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थीचीख़ निकली भी छँट तो होठों में ही घुट कर रह गईछटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गईदिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गयावासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
हम मुन्तज़िर थे शाम और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज मेंहोश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद मेंजुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब थाजो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब थाबढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन हैपूछ तो बेटी से सूरज आख़िर वो दरिंदा कौन हैकोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहींकच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहींकैसे हो सकता है होनी कह केहम टाला करेंऔर ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करेंबोला कृष्ना से- बहन, दोस्तो! सो जा मेरे अनुरोध सेलेकिन बच नहीं सकता है वो आया सर पे तो क़द अपना घट गया पापी मेरे प्रतिशोध से
गाँवों को छोड़ कर तो चले आए शहर पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान मेंदृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक परदेखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक करक्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गयाकल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गयाकहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहोसुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
किससे पनाह मांगे कहाँ जाएँ क्या करें देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहांफिर आफ़ताब रात का घूँघट उलट पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहांजैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर हैहाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर हैभेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआफिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआआज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गईजाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गईवो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गईवरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
सैलाब-एजानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार हैहरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार हैकल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-नूर बाप कीगाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी´बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गयाहाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर थाहाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर थारात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और थासिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ मेंएक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ मेंघेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकरएक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ करगिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गयासुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहाएक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा मुझ होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर ठाकुरों से दूरफिर दरोगा ने कहा ललकार कर -दूर वो शख़्स `मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दोआग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो´और फिर अन्धेरे प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगीबेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगीदुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में थावह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में थाघर को जलते देखकर वे होश को खोने लगेकुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे ´´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहींहुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं ´´यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल सेआ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल सेफिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगाठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ देंहोश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दोहोश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लोये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल हैऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है" पूछते रहते हैं मुझसे लिपट गया लोग अकसर यह सवाल`कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल´उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार कोसड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार कोधर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार कोप्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार कोमैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव मेंतट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव मेंगाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रहीया अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रहीहैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिएबेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
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