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दायम तेरे दर पे / अनामिका

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|संग्रह=
}}
सभागार की{{KKCatKavita}}<brpoem>सभागार की ये पुरानी दरी<br>गालिब के<br>किसी शेर के साथ<br>बुनी गई होगी -<br>कम से कम<br>दो शताब्दी पहले।<br>’दर‘ का ’दर्द‘ से<br>होगा जरूर<br>कोई तो रिश्ता<br>’दायम पडा हुआ<br>तेरे दर पर <br> नहीं हूँ मैं -<br>कह नहीं सकती<br>बेचारी दरी।<br>जूते-चप्पल झेलकर भी<br>हरदम सजदे में बिछी<br>धूल फाँकती सदियों की<br>मसक गई है ये जरा-सी<br>जब कभी खिंच जाती है<br>सभा लम्बी<br>राकस की टीक की तरह<br>धीरे से भरती है<br>शिष्ट दरी<br>नन्हीं-मुन्नी एक<br>अचकचाती-सी<br>उबासी<br>पुराने अदब का<br>इतना लिहाज है उसे,<br>खाँसती भी है तो धीरे से!<br>किरकिराती जीभ से रखती है<br>होंठ ये<br>लगातार तर<br>किसी पुराने चश्मे के काँच-सी-धुँधली,<br>किसी गंदुमी शाम-सी धूसर<br>सभागार की ये पुरानी दरी<br>बुनी गई होगी<br>गालिब के किसी शेर की तरह<br>कम-से-कम<br>दो शताब्दी पहले।<br>नई-नई माँओं को<br>जब पढने होते हैं<br>सेमिनार में पर्चे<br>पीली सी साटन की फालिया पर<br>छोड जाती हैं वे बच्चे<br>सभागार की इस<br>
दरी दादी के भरोसे।
</poem>
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