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अशाँत कस्बा / अनूप सेठी

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|रचनाकार=अनूप सेठी
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::'''एक'''
आएगी सीढ़ियों से धूप
सैलानी दो चार दिन रुकेंगे
अलसाए बाजार में टहलती रहेगी जिंदगी
 
सफेद फाहों में चाहे धसक जाए चाँद
लौट जाती है धूप सीढ़ियों से
 ::'''दो'''  
ज़िले के दफ्तर नौकरियाँ बजाते रहेंगे
अस्पताल बहुत व्यस्त रहेगा दिन भर
आखिरी बसें ठसाठस भरी हुई निकलेंगी
 
कुछ देर पीछे हाथ बाँध के टहलेगा
और बेखबर घूमता रहेगा दुनिया का गोला ''''''
(1988) 
</poem>
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