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फिर से / अरुण कमल

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|संग्रह = अपनी केवल धार / अरुण कमल
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धीरे धीरे उतरी है बाढ़
 
फिर उभरी आ रही हैं मेड़ें
 
खुले आ रहे हैं खेत घर द्वार
 
फिर से मसूड़ों में उग रही है दाँत की पाँत ।
 
दह गए थे धान के खेत
 
घरों में भरा था बाढ़ का पानी
 
यहाँ से वहाँ तक बस बची थी पाँक
 
पता नहीं कौन-सी कोख में
 
बचा हुआ जीवन
 
फिर से फेंकता है कंछा
 
फिर से अपनी ज़मीन पर लौट रहे हैं लोग-बाग
 
लौट रहे हैं पशु-पक्षी
 
लौट रहा है सूर्य
 
लौटा आ रहा है सारा संसार
 
इस प्रलय के बाद ।
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