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उर्वर प्रदेश / अरुण कमल

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|संग्रह = अपनी केवल धार / अरुण कमल
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<poem>
मैं जब लौटा तो देखा
पोटली में बँधे हुए बूँटों ने
::फेंके हैं अंकुर।
मैं जब दो दिनों के बाद आज लौटा तो देखा<br>हूँ वापस पोटली अजीब गन्ध है घर में बँधे हुए बूँटों ने<br>किताबों कपड़ों और निर्जन हवा की ::फेंके हैं अंकुर।<br><br>फेंटी हुई गन्ध
दो दिनों के बाद आज लौटा हूँ वापस<br>पड़ी है चारों ओर धूल की एक पर्त अजीब गन्ध और जकड़ा है घर जग में<br>किताबों कपड़ों और निर्जन हवा की<br>::फेंटी हुई गन्ध<br><br>बासी जल
पड़ी है चारों ओर धूल जीवन की एक पर्त<br>कितनी यात्राएँ करता रहा यह निर्जन मकान ::मेरे साथ तट की तरह स्थिर, पर गतियों से भरा सहता जल का समस्त कोलाहल-- सूख गए हैं नीम के दातौन और जकड़ा है जग पोटली में बासी जल बँधे हुए बूँटों ने फेंके हैं अंकुर निर्जन घर में जीवन की जड़ों को ::पोसते रहे हैं ये अंकुर <br><br>
जीवन की कितनी यात्राएँ करता रहा यह निर्जन मकान<br>खोलता हूँ खिड़की ::मेरे साथ<br>और चारों ओर से दौड़ती है हवा तट की तरह स्थिर, पर गतियों मानो इसी इन्तजार में खड़ी थी पल्लों से भरा<br>सट के सहता पूरे घर को जल का समस्त कोलाहलभरी तसली--<br>सा हिलाती सूख गए हैं नीम के दातौन<br>मुझसे बाहर मुझसे अनजान और पोटली में बँधे हुए बूँटों ने फेंके हैं अंकुर<br>निर्जन घर में जारी है जीवन की जड़ों को<br>यात्रा अनवरत ::पोसते रहे हैं ये अंकुर<br><br>बदल रहा है संसार
खोलता हूँ खिड़की<br>और चारों ओर से दौड़ती है हवा<br>मानो इसी इन्तजार में खड़ी थी पल्लों से सट के<br>पूरे घर को जल भरी तसली-सा हिलाती<br>मुझसे बाहर मुझसे अनजान<br>जारी है जीवन की यात्रा अनवरत<br>बदल रहा है संसार<br><br> आज मैं लौटा हूँ अपने घर<br>दो दिनों के बाद आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर<br>फैला है सामने निर्जन प्रान्त का उर्वर-प्रदेश<br>सामने है पोखर अपनी छाती पर<br>जलकुम्भियों का घना संसार भरे।<br/poem>
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