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सींग / अरुण कमल

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|संग्रह=पुतली में संसार / अरुण कमल
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लगातार बढ़ रहा है सींग
 
घूमता तेज़ नुकीला आँख पर अन्दर
 
धीरे-धीरे मेरा देखना कट रहा है
 
डिग रही है ठौर से पुतली
 
मेरा चांद कट रहा है
 
कट रही है पतंग मेरा रास्ता रसद पानी का
 
जब भी ताकता पड़ता वही सामने
 
जितना भी चीरूँ जितना भी फेरूँ
 
बस वही वही एक कुछ नहीं
 
धब्बा भी नही काली भीत
 
लगातार बढ़ रहा है गेंडुर बांधता
 
इतना कि दोनों पलकें अब सट नहीं रहीं
 
आँख पर अंकुश दाबता कोआ घोंटता पुतली
 
मुझ ही से फूट मेरा सींग मुझ ही को भेदता ।
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