{{KKRachna
|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री
|संग्रह=मेरा सफ़र / अली सरदार जाफ़री
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उफ़ुक़<ref>क्षितिज </ref> के दिल में है ख़ंजर, लहूलुहान है शाम
सफ़ेद शीशा-ए-नूर और सिया बारिशे-संग
ज़मीं से ता-ब-फ़लक<ref> धरती से क्षितिज तक </ref> है बलन्द रात का नाम
यकीं का ज़िक्र ही क्या है कि अब गुमाँ भी नहीं
वो बेहिसी<ref> चेतना या एहसास का अभाव</ref> है कि जो क़ाबिले-बयाँ भी नहीं
कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग
जबीने-शौक़<ref>चाव से झुकने वाला माथा </ref> नहीं संगे-आस्ताँ<ref>दहलीज़ का पत्थर (झुकने के लिए) </ref>भी नहीं
रक़ीब<ref> </ref> जीत गये ख़त्म हो चुकी है जंग
हज़ार लब से जुनूँ सुन रहे हैं अफ़साना
वो पहना शम्अ़ ने फिर ख़ूने-आफ़ताव का ताज
सितारे ले के उठे नूरे-आफ़ताब<ref>सूर्य के प्रकाश </ref> के जाम
पलक-पलक पे फ़िरोज़ाँ<ref>आलोकित </ref> हैं आँसुओं के चिराग़
लबें चमकती हैं या बिजलियाँ चमकती हैं