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क़त्ले-आफ़ताब / अली सरदार जाफ़री
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09:23, 6 नवम्बर 2009
कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग
जबीने-शौक़<ref>चाव से झुकने वाला माथा </ref> नहीं संगे-आस्ताँ<ref>दहलीज़ का पत्थर (झुकने के लिए)</ref>भी नहीं
रक़ीब<ref>
प्रतिद्वन्द्वी
</ref>
जीत गये ख़त्म हो चुकी है जंग
हज़ार लब से जुनूँ सुन रहे हैं अफ़साना
द्विजेन्द्र द्विज
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