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शिरीष का सुरभि-गान / त्रिलोचन

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{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिलोचन
}}<poem>शिरीष का प्रसून
चित्रकार की तूलिका सा होता है,
कोमलता और सुरभि उस में अधिकाते हैं।

मेह में कनारी भी
पल दो पल झर जाय
तो दब जायगी मनोहर सुरभि यह
दो चार दिन धूप खा कर
कुड्मल नये नये उकसेंगे
फिर आकाश को निहारते हुए प्रसून।

फूलों के बाद ही शिरीष में
हरी हरी चिपटी बीज भरी फलियाँ
पूरे विस्तार से बिराजती हैं।

अपना जीवन जी कर
फलियाँ सूख जाती हैं
किंतु वृंत छोड़ नहीं देता उन्हें
आँधी और वर्षा ही इनको अलगाते हैं
रसिक जन प्रसून सुधि करते हैं,
सुरभि गान गाते हैं।

10.11.2002</poem>
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