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तीन कवितायें / दीप्ति नवल

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'''1.'''
मैंने देखा है दूर कहीं परबतों पर्बतों के पेड़ों पर
शाम जब चुपके से बसेरा कर ले
और बकिरयों का झंड झुंड लिए कोई चरवाहा
कच्ची-कच्ची पगडंडियों से होकर
पहाड़ के नीचे उतरता हो
जहाँ से कांधे पे बस्ता उठाकर
स्कूल जाना शुरू किया था
इस जहन ज़ेहन को बदलकरकोई नया जहन ज़ेहन लगवाना होगा
और इस सबके बाद जिस रोज़
खुलकर
के रिश्ते को
क्योंकि उसे नाम दे सकते हैं ना!
नामों से बंधेबँधे
बेचारे यह लोग!
</poem>