{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह 'दिनकर'
|संग्रह=धूप और धुआँ / रामधारी सिंह "दिनकर"
}}
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<poem>
पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा,
धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास;
उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,
बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।
पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा<br>धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास<br><br> उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,<br>बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।<br><br> क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?<br>तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो,<br><br> लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है?<br>बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।<br><br/poem>