{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह 'दिनकर'
|संग्रह=सामधेनी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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<poem>
धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।
धुँधली हुई दिशाएँबेचैन हैं हवाएँ, छाने लगा कुहासासब ओर बेकली है,<br>कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा।<br>कोई मुझे बता देनहीं बताता, क्या आज हो रहा किश्ती किधर चली है? मँझदार है,<br>भँवर है या पास है किनारा? मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो यह नाश आ रहा हैया सौभाग्य का सितारा?<br>दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला आकाश पर अनल से लिख देअदृष्ट मेरा,<br>बुझती हुई शिखा भगवान, इस तरी को संजीवनी पिला दे।<br>भरमा न दे अँधेरा। प्यारे स्वदेश के हित अँगार तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।<br>चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।<br><br>
बेचैन हैं हवाएँआगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है, सब ओर बेकली बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,<br>कोई नहीं बताताअग्निस्फुलिंग रज का, किश्ती किधर चली बुझ ढेर हो रहा है?<br>, मँझदार हैरो रही जवानी, भँवर है या पास है किनारा?<br>यह नाश आ अँधेर हो रहा है या सौभाग्य का सितारा?<br>! आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरानिर्वाक है हिमालय,<br>भगवानगंगा डरी हुई है, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।<br>तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।<br>ध्रुव निस्तब्धता निशा की कठिन घड़ी दिन मेंभरी हुई है। पंचास्यनाद भीषण, पहचान विकराल माँगता हूँ। जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।<br><br>
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है,<br>बलपुंज केसरी अरमानआरज़ू की ग्रीवा झुकी हुई है,<br>लाशें निकल रही हैं। अग्निस्फुलिंग रज काभीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं, बुझ ढेर हो रहा है,<br>है रो रही जवानीसोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं, अँधेर हो रहा है!<br>निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई हैइनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,<br>निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।<br>पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे। पंचास्यनाद भीषणउन्माद, विकराल बेकली का उत्थान माँगता हूँ।<br>जड़ताविनाश को फिर भूचाल विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।<br><br>
मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही हैआँसूभरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,<br>अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं।<br>भीगीखुशी पलों मेरे शमशान में रातें गुज़ारते हैं,<br>आ श्रंगी जरा बजा दे। सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैंफिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे,<br>इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे। आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,<br>पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।<br>उन्माद, बेकली विष का उत्थान सदा लहू में संचार माँगता हूँ।<br>विस्फोट माँगता हूँ, तूफान बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।<br><br>
आँसूभरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,<br>मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे।<br>फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे,<br>हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।<br>आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,<br>अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।<br>विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।<br>बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।<br><br> ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,<br>जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।<br>गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,<br>इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।<br>हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,<br>अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे।<br>प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ।<br>तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ। <br><br><br/poem>