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निशाँ क़दमों के / जया जादवानी
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15:44, 23 नवम्बर 2009
लगा तो दिया था निशान नियति ने
उस द्वार पर कि भूलूँ न
फिर भी हुआ क्या आवारगी बनी
नसईब
नसीब
देख रही हूँ हैरान हो
निशाँ अपने क़दमों के
ऊपर से...।
</poem>
गंगाराम
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