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बंध / ऋतु पल्लवी

6 bytes removed, 14:13, 24 नवम्बर 2009
|रचनाकार=ऋतु पल्लवी
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बंधन बांधते नहीं और बिखेरते ही हैं
 
अपनी हर कड़ी में व्यथा को और उकेरते ही हैं .
 
तुम हाथ से हाथ को बाँधते हो
 
उसमें छिपी सृजनता को नहीं सींचते
 
निर्निमेष दृष्टि के अथाह होना चाहते हो
 
पर अन्धकार से भय है ,
 
यह हृदय पर कैसा विजय है?
 
मन का मान कहाँ है ?
 
कभी मही पर,कभी मेघ में
 
निर्विवेक -कोई स्थान कहाँ है ?
 
जो बाहर की स्थिरता में सध गया
 
संधान गति की तरलता का पा गया
 
पर अतलता की उसे कहाँ कुछ टोह
 
जड़ का इतना मोह,चेतना से बिछोह !
 
बाँध लाए थे तुम एक फूलों का गुच्छा
 
तब से नित्य देखती हूँ-
 
गुलदान की ऊँची प्राचीरों में
 
कांच की दीवारों में ,
 
गलते-सूखते-घुटते गुलाब को
 
और चकित होती हूँ !
 
किसी की व्यथा से पगे उदगार
 
कैसे हो सकते हैं मुझे उपहार ?
 
नेह बंधन कब हैं ?
 
वह तो मेह है-कूल है
 
जो केवल किनारे पर खड़ा रहता है
 
और अपनी लहर को तड़ाग नहीं
 
विपथगा होने देना चाहता है- होने देता है .
 
दुष्कर - एक क्षण को ही सही
 
मैं सहज स्फूर्ति वरदान होना चाहती हूँ
 
नित्य का अभिशाप नहीं
 
मैं बंध कर क्या कह सकूंगी
 
स्वत्व को खोकर कितनी सत्व रहूंगी ?
 
कभी देखा है ग्रीष्म से उतप्त पवन को
 
बंध किवाडों मैं,झरोखों में ढकेलकर
 
उमस होकर क्लेद बन जाते -बह जाते हुए
 
जो निःसंग ,निर्वाक ,निर्विरोध
 
संध्या तक बहती तो संभवतः
 
प्रशांत हो भी जाती !
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