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मुस्काना / ऋतु पल्लवी

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|रचनाकार=ऋतु पल्लवी
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दो कलि सामान कोमल अधरों पर
 
शांत चित्त की सहज कोर धर
 
अलि की सरस सुरभि को भी हर
 
प्रथम उषा की लाली भर कर
 
स्निग्ध सरस सम बहता सीकर
 
चिर आशा का अमृत पीकर
 
साँसों की एक मंद लहर से
 
कलि द्वय का स्पंदित हो जाना
 
तभी उन्हीं के मध्य उभरते
 
मुक्तक पंक्ति का खिल जाना
 
जीने से कहीं सुखकर लगता है
 
ऐसे मुस्काने पर,
 
सर्वस्व त्यागकर मिट जाना !
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