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01:57, 25 नवम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|संग्रह=
}}<poem>सूरज सोच सकने को लेकर
मैंने पहले भी कभी लिखा है
इन दिनों लड़ता हूँ इस शक से कि
सूरज सोचना शायद धीरे-धीरे
असंभव हो रहा है
सूरज सोच सकने के पूर्ववर्ती क्षणों में
वह बूढ़ा भर लेगा उन सभी जगहों को
अपने बच्चे की राख से
जहाँ मेरे पैर हैं
फिलहाल उसे सूरज नहीं सिर्फ एक रुपया
चाहिए या महज कुछ पैसे
मुझे लगता है मैं अभी भी
सूरज सोच सकता हूँ
शक है उस बूढ़े का असंभव ही हो
सूरज सोच सकना
</poem>