<poem>
अजीब तर्ज़-ए-मुलाक़ात मुलाक़ात अब के बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नज़रों से लगता था जैसे मेरे बजाए
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने न हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुज़रता गुज़रता है तेरा जान-ए-हयात ?
पहर दिन की अज़ीयत<ref>अत्याचार</ref> में कितनी शिद्दत है