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09:04, 1 दिसम्बर 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अमीर मीनाई
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[[Category:ग़ज़ल]]<poem>फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझको रात भर रक्खा
कभी तकया इधर रक्खा, कभी तकया उधर रक्खा
बराबर आईने के भी न समझे क़द्र वो दिल की
इसे ज़ेर-ए-क़दम रक्खा उसे पेश-ए-नज़र रक्खा
तुम्हारे संग-ए-दर का एक टुकड़ा भी जो हाथ आया
अज़ीज़ ऐसा किया कि मर कर उसे छाती पे धर रक्खा
जिनाँ में साथ अपने क्यों न ले जाऊँ मैं नासेह को
सुलूक ऐसा ही मेरे साथ है हज़रत ने कर रक्खा
बड़ा एहसाँ है मेरे सर पे उसकी लग़ज़िश-ए-पा का
कि उसने बेतहाशा हाथ मेरे दोश पर रक्खा
तेरे हर नक़्श-ए-पा को रेहगुज़र में सजदा कर बैठे
जहाँ तूने क़दम रक्खा वहाँ हमने भी सर रक्खा
अमीर अच्छा शगून-ए-मय किया साक़ी की फ़ुरक़त में
जो बरसा अब्र-ए-रेहमत जा-ए-मय शीशे में भर रक्खा
</poem>