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08:33, 5 दिसम्बर 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= हसरत मोहानी
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[[category: ग़ज़ल]]
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हाले-मज़बूरिए-दिल<ref >दिल की मजबूरी की हालत</ref> की निगराँ<ref >देखने वाली</ref> ठहरी है
देखना वह निगहे-नाज़ कहाँ ठहरी है
यार बे-नामो-निशाँ था सो उसी निस्बत से
लज़्ज़ते-इश्क़ भी बे-नामो-निशाँ ठहरी है
ख़ैर गुज़री कि न पहुँची तेरे दर तक वर्ना
आह ने आग लगा दी है जहाँ ठहरी है
दुश्मने-शौक़ कहे और तुझे सौ बार कहे
इसमें ठहरेगी न 'हसरत' की ज़बाँ ठहरी है
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