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13:38, 13 दिसम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कबीर
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निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।
जहां न तनिक न्याय विचार ।।
रंगमहल में बसें मसखरे, पास तेरे सरदार ।
धूर धूप में साधो विराजें, होये भवनिधि पार ।।
वेश्या आेढे खासा मखमल, गल मोतिन का हार ।
पतिव्रता को मिले न खादी सूखा ग्रास अहार ।।
पाखंडी को जग में आदर, सन्त को कहें लबार ।
अज्ञानी को परं ब्रहम ज्ञानी को मूढ़ गंवार ।।
सांच कहे जग मारन धावे, झूठन को इतबार ।
कहत कबीर फकीर पुकारी, जग उल्टा व्यवहार ।।
निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।