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मोह / सुमित्रानंदन पंत

1 byte added, 15:56, 22 दिसम्बर 2009
तोड़ प्रकृति से भी माया,
:बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
::::भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल-तरंगों को,
इन्द्इन्द्र-रधनुष धनुष के रंगों को,
:तेरे भ्रू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
::::भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल-बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
:कह, तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि! श्रवन?
::::भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा रश्मि से उतरा जल,
:ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहाला बहला दूँ जीवन?::::भूल अभी से इस जग को!
'''रचनाकाल: जनवरी १९१८'''
</poem>
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