<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td> '''शीर्षक: '''पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गयाकी तरह<br> '''रचनाकार:''' [[शीन काफ़ निज़ामअनिल जनविजय]]</td>
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<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
पहले ज़मीन बाँटी थी फिर पहुँच अचानक उस ने मेरे घर भी बँट गया परइन्सान अपने आप लाड़ भरे स्वर में कितना सिमट गया कहा ठहर कर"अरे... सब-कुछ पहले जैसा हैसब वैसा का वैसा है...पहले की तरह..."
अब क्या हुआ कि ख़ुद को मैं पहचानता नहीं फिर शांत नज़र से उस ने मुझे घूरामुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छँट लेकिन कहीं कुछ रह गया अधूरा
हम मुन्तज़िर थे शाम उदास नज़र से सूरज के, दोस्तो! मैं ने उसे ताकालेकिन वो आया सर पे तो क़द अपना घट गया फिर उस की आँखों में झाँका
गाँवों को छोड़ कर तो चले आए शहर में मुस्काई वह, फिर चहकी चिड़िया-सीजाएँ किधर कि शहर हँसी ज़ोर से भी जी उचट गयाकिसी बहकी गुड़िया-सी
किससे पनाह मांगे कहाँ जाएँ क्या करें चूमा उस ने मुझे, फिर आफ़ताब रात का घूँघट उलट गया सिर को दिया खमबरसों के बाद इस तरह मिले हमसैलाब-ए-नूर में जो रहा मुझ से दूर-दूर वो शख़्स फिर अन्धेरे में मुझसे लिपट गयापहले की तरह</pre>
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