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|संग्रह=खिचड़ी विप्लव देखा हमने / नागार्जुन
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होते रहेंगे बहरे ये कान जाने कब तक
 
ताम-झाम वाले नकली मेघों की दहाड़ में
 
अभी तो करुणामय हमदर्द बादल
 
दूर, बहुत दूर, छिपे हैं ऊपर आड़ में
 
यों ही गुजरेंगे हमेशा नहीं दिन
 
बेहोशी में, खीझ में, घुटन में, ऊबों में
 
आएंगी वापस ज़रूर हरियालियां
 
घिसी-पिटी झुलसी हुई दूबों में
 
(१९७६ में रचित)
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