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जाके लिए घर आई घिघाय / बिहारी

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|रचनाकार=बिहारी
|संग्रह=
}} {{KKCatKavita}}[[Category: सवैया]]<poem>
जाके लिए घर आई घिघाय, करी मनुहारि उती तुम गाढ़ी
 
आजु लखैं उहिं जात उतै, न रही सुरत्यौ उर यौं रति बाढ़ी
 
ता छिन तैं तिहिं भाँति अजौं, न हलै न चलै बिधि की लसी काढ़ी
 
वाहि गँवा छिनु वाही गली तिनु, वैसैहीं चाह (बै) वैसेही ठाढ़ी ।।
</पोएम>
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