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सिलसिला ये दोस्ती का / अश्वघोष
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17:30, 3 जनवरी 2010
अब परिंदों को मेरा घर घोंसला जैसा लगे
घंटियों की भाँति जब बजने लगें
ख़मोशियाँ
ख़ामोशियाँ
घंटियों का शोर क्यों न
जलजला
ज़लज़ला
जैसा लगे।
बंद कमरे की उमस में छिपकली को देखकर
ज़िंदगी का ये सफ़र इक हौसला जैसा लगे।
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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