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::गंगा के पानी में देखो,
::परछाईं आग लगाती है।
विप्लव ने उगला तुम्हें, महामणि
उगले ज्यों नागिन कोई;
माता ने पाया तुम्हें यथा
मणि पाये बड़भागिन कोई।
::लौटे तुम रूपक बन स्वदेश की
::आग भरी कुरबानी का,
::अब "जयप्रकाश" है नाम देश की
::आतुर, हठी जवानी का।
कहते हैं उसको "जयप्रकाश"
जो नहीं मरण से डरता है,
ज्वाला को बुझते देख, कुण्ड में
स्वयं कूद जो पड़ता है।
::है "जयप्रकाश" वह जो न कभी
::सीमित रह सकता घेरे में,
::अपनी मशाल जो जला
::बाँटता फिरता ज्योति अँधेरे में।
है "जयप्रकाश" वह जो कि पंगु का
चरण, मूक की भाषा है,
है "जयप्रकाश" वह टिकी हुई
जिस पर स्वदेश की आशा है।
::हाँ, "जयप्रकाश" है नाम समय की
::करवट का, अँगड़ाई का;
::भूचाल, बवण्डर के ख्वाबों से
::भरी हुई तरुणाई का।
है "जयप्रकाश" वह नाम जिसे
इतिहास समादर देता है,
बढ़ कर जिसके पद-चिह्नों को
उर पर अंकित कर लेता है।
::ज्ञानी करते जिसको प्रणाम,
::बलिदानी प्राण चढ़ाते हैं,
::वाणी की अंग बढ़ाने को
::गायक जिसका गुण गाते हैं।
आते ही जिसका ध्यान,
दीप्त हो प्रतिभा पंख लगाती है,
कल्पना ज्वार से उद्वेलित
मानस-तट पर थर्राती है।
::वह सुनो, भविष्य पुकार रहा,
::"वह दलित देश का त्राता है,
::स्वप्नों का दृष्टा "जयप्रकाश"
::भारत का भाग्य-विधाता है।"
'''रचनाकाल: १९४६'''
</poem>
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