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जय विधायिके अमर क्रान्ति की! अरुण देश की रानी!
रक्त-कुसुम-धारिणि! जगतारिणि! जय नव शिवे! भवानी!
::अरुण विश्व की काली, जय हो,::लाल सितारोंवाली, जय हो,::दलित, बुझुक्ष्, विषण्ण मनुज की,::शिखा रुद्र मतवाली, जय हो।
जगज्ज्योति, जय - जय, भविष्य की राह दिखानेवाली,
जय समत्व की शिखा, मनुज की प्रथम विजय की लाली।
भरे प्राण में आग, भयानक विप्लव का मद ढाले,
देश-देश में घूम रहे तेरे सैनिक मतवाले।
::नगर-नगर जल रहीं भट्ठियाँ,::घर-घर सुलग रही चिनगारी;::यह आयोजन जगद्दहन का,::यह जल उठने की तैयारी; :देश देश में शिखा क्षोभ की:उमड़-घुमड़ कर बोल रही है;:लरज रहीं चोटियाँ शैल की,:धरती क्षण-क्षण डोल रही है। ये फूटे अंगार, कढ़े अंबर में लाल सितारे,फटी भूमि, वे बढ़े ज्योति के लाल-लाल फव्वारे।बंध, विषमता के विरुद्ध सारा संसार उठा है।अपना बल पहचान, लहर कर पारावार उठा है।छिन्न-भिन्न हो रहीं मनुजता के बन्धन की कड़ियाँ,देश-देश में बरस रहीं आजादी की फुलझड़ियाँ। :एक देश है जहाँ विषमता:से अच्छी हो रही गुलामी,:जहाँ मनुज पहले स्वतंत्रता:से हो रहा साम्य का कामी। :भ्रमित ज्ञान से जहाँ जाँच हो:रही दीप्त स्वातंत्र्य-समर की,:जहाँ मनुज है पूज रहा जग को,:बिसार सुधि अपने घर की। :जहाँ मृषा संबंध विश्व-मानवता:से नर जोड़ रहा है,:जन्मभूमि का भाग्य जगत की:नीति-शिला पर फोड़ रहा है।  
</poem>
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