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तृतीयोअध्याय
अर्जुन उवाच
<span class="upnishad_mantra">
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥३- १॥
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कबहूँ कहत निष्काम कबहूँ ,
तुम ज्ञान को श्रेय बताय रहे,
फिरि काहे बेचारे अर्जुन को,
तुम करमन घोर फँसाय रहे
<span class="upnishad_mantra">व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव में।तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥३- २॥</span>
इन मिश्रित वचनन सों माधव,
मोरी बुद्धि विमोहित होत घनी..
एक बात कहौ दृढ़ चित्त मना ,
कल्याण होय बनूँ सत्य धनी
<span class="upnishad_mantra">लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥३- ३॥</span>
श्री कृष्ण उवाच
अघ हीन पार्थ! सुनि जग मांहीं,
ज्ञानिन की ज्ञान के योगन सौं,
योगिन की योग सौं ज्ञान प्रथा
<span class="upnishad_mantra">न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥३- ४॥</span>
यदि मानुष कोऊ अकरमठ हो,
निष्काम कबहूँ नहीं होवत है,
न ही करमन कौ त्यागन भर सौं
कोऊ सिद्धि सिद्धारथ होवत है
<span class="upnishad_mantra">न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥३- ५॥</span>
नहीं मानुष जग में छिन एकहूँ,
बिनु कर्म किये कब रही पावै,
सब आपुनि- आपुनि गुन प्रकृति
वश परवश करमन गहि पावै
<span class="upnishad_mantra">कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३- ६॥</span>
कर्मेन्द्रिय को जो विमूढ़ जना,
हठ सों रोकें , मन मांहीं गहै,
मन मांही भोगन चित्त धरे
मिथ्याचारी जन ताहि कहैं
<span class="upnishad_mantra">यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥३- ७॥</span>
मन सों इन्द्रियन को हे अर्जुन!
वश माहीं करें जो यथारथ में,
बिनु मोह करम ही श्रेय करम,
आसक्ति न नैकु पदारथ में
<span class="upnishad_mantra">नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥३- ८॥</span>
सुन शास्त्र नियत आपुनि करमन ,
कौ पार्थ! करो तेरौ धरम यही.
बिनु करम निबाह न देहन कौ,
बिनु करम सों तो कछु करम सही
<span class="upnishad_mantra">यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥३- ९॥</span>
अतिरिक्त यज्ञ के सबहीं करम,
बहु भांति मनुज को बाँधत हैं,
बिनु मोह करम जो ब्रह्म हेतु,
सत रूप जनम कौ साधत हैं
<span class="upnishad_mantra">सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥३- १०॥</span>
अति आदि में कल्प, प्रजा पति ने,
यज्ञ के संग प्रजा को रच्यो.
इच्छित फल वृद्धि सबहीं पावौ
वरदान दियो आशीष कहयो
<span class="upnishad_mantra">देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३- ११॥</span>
करें यज्ञ सों देवन की वृद्धि,
और देवहूँ वृद्धि करें सबकी.
यही भांति परस्पर वृद्धिं सों
कल्यान समृद्धिंन हों सबकी
<span class="upnishad_mantra">इष्टान्भोगान्हि वह देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥३- १२॥</span>
जिन देवन यज्ञ सों वृद्धि भई
वे आपु ही श्री को बढ़ावत हैं.
जो देवन अंश दिए बिनु ही
करैं भोग वे चोर कहावत हैं
<span class="upnishad_mantra">यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात्॥३- १३॥</span>
यज्ञ सों अन्न बचो तेहि कौ,
जो खावत पाप सों छूटत है.
जो आपु बनाय के खावत सों
जन पाप खाय के जीवत है
<span class="upnishad_mantra">अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥३- १४॥</span>
प्राणी सब अन्न सों उपजत हैं,
और अन्न है उपजत वृष्टि सों,
अथ वृष्टि यज्ञ सों होत यथा,
और यज्ञ करम शुभ वृति सों
<span class="upnishad_mantra">कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥३- १५॥</span>
सब करम ही वेद सों उपजत हैं
और वेद अमर परमेश्वर सों.
अथ यज्ञ में व्यापक ब्रह्म बस्यो
ब्रह्माण्ड बन्यो अखिलेश्वेर सों
<span class="upnishad_mantra">एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥३- १६॥</span>
हे पार्थ! जो मानुष यही जग में,
विधि शास्त्र नियम बरतत नांहीं,
वे इन्द्रिय सुख भोगन हारे,
अघ आयु बिरथ जीवन नाहीं
<span class="upnishad_mantra">यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३- १७॥</span>
जिन तृप्त आतमा में हुइ के,
आतम तृप्ति संतुष्ट रहै ,
और आतमा में ही प्रीति करै,
ताको न कोऊ कर्त्तव्य रहै
<span class="upnishad_mantra">नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३- १८॥</span>
ना कोऊ प्रयोजन अस जन कौ,
कोऊ करमन और अकरमन में.
नाहीं स्वारथ कौ सम्बन्ध कोऊ,
संसार सकल के प्रानिन में
<span class="upnishad_mantra">तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥३- १९॥</span>
सों अर्जुन !करी कर्त्तव्य करम ,
निष्काम, प्रभु को धारे हिया.
बिनु मोह करम निरमोही मन,
जिनके, समुझौ प्रभु पाय लिया
<span class="upnishad_mantra">कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥३- २०॥</span>
बिनु मोह करम ज्ञानी जन भी,
करिहै, पइहैं तब सिद्धि मही.
सों लोक कौ संग्रह देखत भये
करी करम हे अर्जुन! योग्य यही
<span class="upnishad_mantra">यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥३- २१॥</span>
जो साधू जना जग मांहीं करैं ,
तस अन्य जना बरताव करैं.
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