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<span class="upnishad_mantra">
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥१०- १॥
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श्री भगवानुवाच
तू मोसों घनेरौ, नेह करै
मेरौ मर्म सुनौ हे महाबाहो!
तू भक्त मेरौ, मैं पार्थ! तेरौ
<span class="upnishad_mantra">न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥१०- २॥</span>
ना देवन ना ही महर्षि गण,
उत्पत्ति कौ मोरी जानत हैं,
अति आदि हूँ कारण यहि सबकौ
कोऊ बिरलौ मोहे पिछानत हैं
<span class="upnishad_mantra">यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१०- ३॥</span>
लोकेश, अनादि अजन्मा, मैं
यहि रूपहीं जो मोहें ज्ञात करें,
तिन तत्त्व सों जानति ज्ञानी जन,
और पाप सबहिं, हुइ जात परे
<span class="upnishad_mantra">बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥१०- ४॥</span>
भय, सत्य, क्षमा, और यश अपयश,
शम, दम, तप, तत्त्व कौ ज्ञान हूँ मैं.
उत्पत्ति-प्रलय सुख-दुखन कौ,
नियमित कर्ता हूँ, विधान हूँ मैं
<span class="upnishad_mantra">अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥१०- ५॥</span>
तप दान कीरति अपकीरति ,
संतोष अहिंसा और सत हैं.
सब प्रानिन के बहु भाव विविध.,
सब मोसों ही तो उपजत हैं
<span class="upnishad_mantra">महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥१०- ६॥</span>
ऋषि सप्त मनु चौदह उनसों,
सनकादि भये पहिले जो भी.
निष्पन्न मोरे संकल्पन सों,
भये प्रजा आदि जग में जो भी
<span class="upnishad_mantra">एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥१०- ७॥</span>
जिन योगन शक्ति विभूतिन कौ,
मोरे तत्वन कौ पहिचानत हैं.
तिन ध्यान योग सों संशय बिनु,
सगरे मुझ माहीं समावत हैं
<span class="upnishad_mantra">अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥१०- ८॥</span>
यहि जगत सृष्टि कौ कारण मैं,
करमन क्षमता मोसों उपजै
यहि जान तत्व सों ज्ञानी जना
बस मोहे भजै, बस मोहे भजै,
<span class="upnishad_mantra">मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥१०- ९॥</span>
मुझ माहीं सतत जिन चित्त लग्यो,
मुझ माहीं जिनके प्राण परयो.
वासुदेवहिं चित्त रमाय हिया ,
मन चित्त कथन गुण गान करयो
<span class="upnishad_mantra">तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥१०- १०॥</span>
अस मेरौ सतत जिन ध्यान कियौ,
तिन योग सों योग, मैं योग कियौ.
जिन मेरौ भजन मन प्रीत कियौ,
बिनु संशय मोसों ही योग कियौ
<span class="upnishad_mantra">तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥१०- ११॥</span>
अंतर्मन अंतस माहीं बसौं,
मैं उनकौ अनुग्रह करवन कौ,
मैं ज्ञान के दीप सों शेष करूँ,
अज्ञान तिमिर तिन हिय मन कौ
<span class="upnishad_mantra">परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥१०- १२॥</span>
अर्जुन उवाच
शुचि धाम परम प्रभु पावन है,
अस दिव्य ऋषि जन नित्य कहें ,
बिनु जन्म चहुँ दिसि व्याप रहे
<span class="upnishad_mantra">आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥१०- १३॥</span>
ऋषि देवल व्यास महर्षि और,
नारद देवर्षि कहवत हैं,
ऋषि असित, स्वयं प्रभु आप भी तौ,
अस मोरे विषय यहि कहवत हैं
<span class="upnishad_mantra">सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥१०- १४॥</span>
हे केशव ! मोसों कहवत जो
वही सत्य -सनातन मानत हूँ.
न ही देव न दानव जानत हूँ ,
तोरी लीला अद्भुत मानत हूँ
<span class="upnishad_mantra">स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥१०- १५॥</span>
सब प्रानिन के सरजन हारे,
हे देवों के देव ! कहाँ कत हो?
हे पुरुषोत्तम ! स्वामी जग के,
तुम आपु ही आपु को जानति हो
<span class="upnishad_mantra">वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥१०- १६॥</span>
तुम समरथ आपु बतावन कौ,
प्रभु आपुनि दिव्य विभूतिन कौ,
ब्रह्माण्ड में आपु ही वास करै,
सरजन हारो तू कण-कण कौ
<span class="upnishad_mantra">कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥१०- १७॥</span>
केहि भांति तोरौ , योगेश्वर मैं,
करि पाऊं सतत चिंतन कैसे?
केहि-केहि भावन सुमिरन करिकै ,
कथ पावों तोहे भगवन कैसे?
<span class="upnishad_mantra">विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥१०- १८॥</span>
विस्तार सों केशव मर्म कहौ,
तोरी दिव्य विभूति को अंत कहाँ?
अमृतमय वचन तोरे सुनि के ,
मन होत जनार्दन ! तृप्त कहाँ?
<span class="upnishad_mantra">हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥१०- १९॥</span>
श्री कृष्ण उवाच
मैं आपुनि दिव्य विभूतिन कौ ,
विस्तारन कौ कछु अंत नाहीं,
अनु कन-कन व्याप रह्यो मोसों
<span class="upnishad_mantra">अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥१०- २०॥</span>
सब प्रानिन की मैं आत्मा हूँ,
मैं वास करूँ हृदयन माहीं.
अति आदि मध्य हूँ, अंत मैं ही ,
मैं अर्जुन! होत कहाँ नाहीं?
<span class="upnishad_mantra">आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥१०- २१॥</span>
बस रह्यो पृथा सुत विष्णु में,
अदिति के बारह पुत्रन में.
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