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कुछ भी तो अब / नईम

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|रचनाकार=नईम|संग्रह = लिख सकूँ तो / नईम
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<poem>
कुछ भी तो अब
तन्त नहीं है-
ऊपरवाले की लाठी में।
दीमक चाट गयी है शायद-
ये भी ऊपरवाला जाने,
भुस में तिनगी जिसने डाली-
वही जमालो खाला जाने।
कुछ भी हम तो अब <br>खड़े हुए हैं तन्त नहीं है-<br>घर के ऊपरवाले की लाठी पानीपत हल्दीघाटी में।<br><br>
दीमक चाट गयी है शायद-<br>दो ही दिन में बासीये भी ऊपरवाला जाने, <br>लगने लगते हैं परिवर्तन भुस में तिनगी जिसने डाली-<br>प्रगतिशील होकर आतेवही जमालो खाला जाने। <br><br>घर-घर में अब ऋण।
हम तो खड़े हुए हैं <br>अपने को घर के <br>रूँधा कुम्हार सा, पानीपत हल्दीघाटी कस ही नहीं रहा माटी में। <br><br>
दो श्रृद्धापक्ष ही दिन में बासी<br>नहीं, किन्तु अब लगने लगते हैं परिवर्तन <br>उनकी बारहमास छन रही,प्रगतिशील होकर आते<br>घरपात्र-घर में अब ऋण। <br><br>कुपात्र न देखे भन्ते !कच्ची, क्वाँरी कोख जन रही।
अपने को <br>रूँधा कुम्हार सा,<br> कस ही नहीं रहा माटी में।<br><br>  श्रृद्धापक्ष ही नहीं, किन्तु अब <br>उनकी बारहमास छन रही,<br>पात्र-कुपात्र न देखे भन्ते ! <br>कच्ची, क्वाँरी कोख जन रही। <br><br> तेल नहीं रह गया<br>हमारी <br>
परम्परा औ’ परिपाटी में।
</poem>
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