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{{KKRachna
|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
|संग्रह=उन हाथों से परिचित हूँ मैं / शलभ श्रीराम सिंह
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<poem>
विश्वास की हथेली पर रखा गया धोखा
आत्मीयता के हवाले किया गया छल
फिर भी ज़िन्दा रहा आदमी
बार-बार धोखे और छल से गुज़रकर।

ढकेला गया पहाड़ से नीचे बार-बार
बार-बार आग में डाला गया ज़िन्दा
डाला गया बार-बार समुद्र के तल में
निकला फिर भी सही और साबित
बचा रहा--- बचा रहा आदमी फिर भी।


रचनाकाल : 1992, मसोढ़ा
</poem>