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|रचनाकार=उमाशंकर तिवारी
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हम न रुकेंगे गलियारों में,
हम न बिकेंगे बाज़ारों नें
:::बाकी है ईमान अभी भी
आधी और गुज़र जाएगी
:::इतना है सामान है अभी भी

:::संचय का सुख जान न पाए
जोड़े भी तो सपने जोड़े -
इन हाथों से नीले नभ नें
कितने श्वेत कबूतर छोड़े?

हम विषपायी जनम-जनम के
:::ज़िन्दा वो पहचान अभी भी।

आग चुराकर सौ दुख झेले
सब कुछ देकर आग बचाई
बन बै ठे चन्दन की समिधा
चारों कोने आग लगाई

जलकर भी ख़ुशबू ही देगें
:::जलने का अभिमान अभी भी।

बाग़ी, हमदम, दोस्त हमारे
मरजीवों से रिश्ते - नाते
दुनिया हमको समझ न पाती
हम दुनिया को समझ न पाते

लीकें छोड़ें. पत्थर तोड़ें
:::हम ऐसे तूफ़ान अभी भी।
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