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रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 7

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शिथिल, सचमुच, नहीं कर पार्थ! मन को .<br>
अभय हो बेधता जा अंग अरि का ,<br>
द्विधा क्या, प्र्राप्त प्राप्त है जब संग हरि का !&#39;&#39;<br>
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&#39;&#39;मही! लै सोंपता हूं आप रथ मैं ,<br>
&#39;&#39;महानिर्वाण का क्षण आ रहा है, नया आलोक-स्यन्दन आ रहा है ;<br>
तपस्या से बने हैं यन्त्र जिसके, कसे जप-याग से हैं तन्त्र जिसके ;<br>
जुते हैंर् कीत्तियों हैं कीर्त्तियों के वाजि जिसमें, चमकती है किरण की राजि जिसमें ;<br>
हमारा पुण्य जिसमें झूलता है, विभा के पद्म-सा जो फूलता है .&#39;&#39;<br>
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&#39;&#39;रचा मैनें जिसे निज पुण्य-बल से, दया से, दान से, निष्ठा अचल से ;<br>
हमारे प्राण-सा ही पूत है जो, हुआ सध्दर्म सद्धर्म से उद्भूत है जो ;<br>
न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको, सुगम सर्वत्र ही है राह जिसको ;<br>
गगन में जो अभय हो घूमता है, विभा की ऊर्मियों पर झूमता है .&#39;&#39;<br>
किये था कर्ण जब सूर्यस्थ मन को ,<br>
लगा शर एक ग्रीवा में संभल के ,<br>
उडी उड़ी ऊपर प्रभा तन से निकल के !<br>
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गिरा मस्तक मही पर छिन्न होकर !<br>
फिरे आकाश से सुरयान सारे ,<br>
नतानन देवता नभ से सिधारे .<br>
छिपे आदित्य होकरर् आत्त होकर आर्त्त घन में ,<br>
उदासी छा गयी सारे भुवन में .<br>
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