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:यह भी नहीं-"चाहती हो क्या, कैसे हो मेरा मन शान्त?"
"मुझे जान पड़ता है तुमसे, आज छली जाऊँगी मैं;
:किन्तु आ गई हूँ जब तब क्या, सहज चली जाऊँगी मैं।
समझो मुझे अतिथि ही अपना, कुछ आतिथ्य मिलेगा क्या?
तुम अनुपम ऐशर्य्यवती हो, एक अकिंचन जन हूँ मैं;
:क्या आतिथ्य करूँ, लज्जित हूँ, वन-वासी, निर्धन हूँ मैं।"
रमणी नि फिर कहा कि "मैंने, भाव तुम्हारा जान लिया,:जो धन तुम्हें दिया है विधि ने, देवों को भी नहीं दिया! किन्तु विराग भाव धारणकर, बने स्वयं यदि तुम त्यागी,:तो ये रत्नाभरण वार दूँ, तुम पर मैं हे बड़भागी!धारण करूँ योग तुम-सा ही, भोग-लालसा के कारण,पर कर सकती हूँ मैं यों ही, विपुल-विघ्न-बाधा वारण॥ इस व्रत में किस इच्छा से तुम, व्रती हुए हो, बतलाओ?:मुझमें वह सामर्थ्य है कि तुम, जो चाहो सो सब पाओ।धन की इच्छा हो तुमको तो, सोने का मेरा भू-भाग,शासक, भूप बनो तुम उसके, त्यागो यह अति विषम विराग॥ और किसी दुर्जय वैरी से, लेना है तुमको प्रतिशोध,:तो आज्ञा दो, उसे जला दे, कालानल-सा मेरा क्रोध,प्रेम-पिपासु किसी कान्ता के, तपस्कूप यदि खनते हो,:सचमुच ही तुम भोले हो, क्यों मन को यों हनते हो?
</poem>
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