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:सेंतमेंत की तापस पदवी, मैंने तुमसे पाई है॥
यों ही यदि तप का फल पाऊँ, तो मैं इसे न चक्खूँगा,
:तुमसे जन के लिए यत्न से, उसको रक्षित रक्खूँगा।"
हँसी सुन्दरी भी, फिर बोली-"यदि वह फल मैं ही होऊँ,
:तो क्या करो, बताओ? बस अब, क्यों अमूल्य अवसर होऊँ?"
"तो मैं योग्य पात्र खोजूँगा, सहज परन्तु नहीं यह काम,"
:"मैंने खोज लिया है उसको, यद्यपि नहीं जानती नाम।
फिर भी वह मेरे समक्ष है, चौंके लक्ष्मण, बोले कौन?
:केवल "तुम" कहकर रमणी भी, हुई तनिक लज्जित हो मौन॥
"पाप शान्त हो, पाप शान्त हो, कि मैं विवाहित हूँ बाले!"
:पर क्या पुरुष नहीं होते हैं, दो-दो दाराओं वाले?
नर कृत शास्त्रों के सब बन्धन, हैं नारी को ही लेकर,
:अपने लिए सभी सुविधाएँ, पहले ही कर बैठे नर!"
 
"तो नारियाँ शास्त्र रचना पर, क्या बहु पति का करें विधान?
:पर उनके सतीत्व-गौरव का, करते हैं नर ही गुणगान।
मेरे मत में एक और हैं, शास्त्रों की विधियाँ सारी,
:अपना अन्तःकरण आप है, आचारों का सुविचारी॥
 
नारी के जिस भव्य-भाव का, साभिमान भाषी हूँ मैं,
:उसे नरों में भी पाने का, उत्सुक अभिलाषी हूँ मैं।
बहुविवाह-विभ्राट, क्या कहूँ, भद्रे, मुझको क्षमा करो;
:तुम कुशला हो, किसी कृती को, करो कहीं कृत्कृत्य, वरो।"
 
"पर किस मन से वरूँ किसी को? वह तो तुम से हरा गया!"
:"चोरी का अपराध और भी, लो यह मुझ पर धरा गया?"
"झूठा?" प्रश्न किया प्रमदा ने, और कहा--"मेरा मन हाय!
:निकल गया है मेरे कर से, होकर विवश, विकल, निरुपाय!
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