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:कब से चलता है बोलो यह, नूतन शुक-रम्भा-संवाद?"
बोलीं फिर उस बाला से वे, सुस्मितपूर्वक वैसे ही-
:"अजी, खिन्न तुम न हो, हमारे, ये देवर हैं ऐसे ही।
घर में ब्याही बहू छोड़कर, यहाँ भाग आये हैं ये,
:इस वय में क्या कहूँ, कहाँ का, यह विराग लाये हैं ये!
किन्तु तुम्हारी इच्छा है तो, मैं भी उन्हें मनाऊँगी,
:रहो यहाँ तुम अहो! तुम्हारा, वर मैं इन्हें बनाऊँगी।
पर तुम हो ऐश्वर्य्यशालिनी, हम दरिद्र वन-वासी हैं,
:स्वामी-दास स्वयं हैं हम निज, स्वयं स्वामिनी-दासी हैं॥
 
पर करना होगा न तुम्हें कुछ, सभी काम कर लूँगी मैं,
:परिवेषण तक मृदुल करों से, तुम्हें न करने दूँगी मैं।
हाँ, पालित पशु-पक्षी मेरे, तंग करें यदि तुम्हें कभी,
:उन्हें क्षमा करना होगा तो, कह रखती हूँ इसे अभी!"
 
रमणी बोली-"रहे तुम्हारा, मेरा रोम रोम सेवी,
:कहीं देवरानी यदि अपनी, मुझे बना लो तुम देवी!"
सीता बोलीं-"वन में तुम-सी, एक बहिन यदि पाऊँगी,
:तो बातें करके ही तुमसे, मैं कृतार्थ हो जाऊँगी॥"
 
"इस भामा विषयक भाभी को, अविदित भाव नहीं मेरे,"
:लक्ष्मण को सन्तोष यही था, फिर भी थे वे मुँह फेरे।
बोल उठे अब-"इन बातों में, क्या रक्खा है हे भाभी!
:इस विनोद में नहीं दीखती, मुझे मोद की आभा भी।"
</poem>
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