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जब तक संकट आप न आवें, तब तक उनसे डर माने,
:जब वे आजावें तब उनसे, डटकर शूर समर ठाने॥
 
"यदि संकट ऐसे हों जिनको, तुम्हें बचाकर मैं झेलूँ,
:तो मेरी भी यह इच्छा है, एक बार उनसे खेलूँ।
देखूँ तो कितने विघ्नों की, वहन-शक्ति रखता हूँ मैं,
:कुछ निश्चय कर सकूँ कि कितनी, सहन शक्ति रखता हूँ मैं॥"
 
"नहीं जानता मैं, सहने को, अब क्या है अवशेष रहा?
:कोई सह न सकेगा, जितना, तुमने मेरे लिए सहा!"
"आर्य्य तुम्हारे इस किंकर को, कठिन नहीं कुछ भी सहना,
:असहनशील बना देता है, किन्तु तुम्हारा यह कहना॥"
 
सीता कहने लगीं कि "ठहरो, रहने दो इन बातों को,
:इच्छा तुम न करो सहने की, आप आपदाघातों को।
नहीं चाहिए हमें विभव-बल, अब न किसी को डाह रहे,
:बस, अपनी जीवन-धारा का, यों ही निभृत प्रवाह बहे॥
 
हमने छोड़ा नहीं राज्य क्या, छोड़ी नहीं राज्य निधि क्या?
:सह न सकेगा कहो, हमारी, इतनी सुविधा भी विधि क्या?"
"विधि की बात बड़ों से पूछो, वे ही उसे मानते हैं,
:मैं पुरुषार्थ पक्षपाती हूँ; इसको सभी जानते हैं।"
 
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