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धरती पर उत्सव / रंजना जायसवाल

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<poem>
आम सुनहरी पिचकारी लिए खडा़ है
और सहजन सफ़ेद
आमडे़ ने हरा रंग घोल रखा है
सिमर मे लाल
कनेर ने पीला
वे रंग रहे हैं धरती को
धरती खिलखिला रही है

सरसों की तरह
झूम रही है
जौ की बालियों की तरह
रस से भर रही है
शहतूत की तरह
महक रही है

नीबू के फूलों की तरह
और अपनी टोली के साथ
उछाल रही है उन पर
रंग और गुलाल...

कुल्फा-मरसा के पास है
लाल गुलाल
धनिए के पास हरा
गाज़र के पास नारंगी
और बैगनी रंग है
तो मूली लिए हुए है
सफ़ेद वार्निश
जो नहीं छूटती आसानी से...

हरी मटर तो रंग-भरा
गुब्बारा लिए
चढ़ आई है मेंड़ पर
अरहर पर इतना ज्यादा
हरा रंग चढा़ है
कि वह काली दिखने लगी है

कोयल चिड़िया के साथ
गा रही है फाग
कलियाँ उडा़ रही हैं सुगन्धित रंगीन गुलाल
शरारती हवा चूमती फिर रही है सबके गाल
सबकी अपनी-अपनी टोली है
लगता है आज होली है...।
</poem>