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’धरो!’ खगि, किसे धरूँ? धृति लिये गये हैं घनी।
तुझ पर-मुझ पर हाथ फेरते साथ यहाँ,
शशक, विदित है तुझे आज वे नाथ कहाँ?
तेरी ही प्रिय जन्मभूमि में, दूर नहीं,
जा तू भी कहना कि उर्मिला क्रूर वहीं!
लेते गये क्यों न तुम्हें कपोत, वे,:गाते सदा जो गुण थे तुम्हारे?लाते तुम्हीं हा! प्रिय-पत्र-पोत वे,:दुःखाब्धि में जो बनते सहारे।औरों की क्या कहिए,:निज रुचि ही एकता नहीं रखती;चन्द्रामृत पीकर तू:चकोरि, अंगार है चखती!विहग उड़ना भी ये हो वद्ध भूल गये, अये,यदि अब इन्हें छोडूँ तो और निर्दयता दये!परिजन इन्हें भूले, ये भी उन्हें, सब हैं बहे;बस अब हमीं साथी-संगी, सभी इनके रहे। मेरे उर-अंगार के बनें बाल-गोपाल,अपनी मुनियों से मिले पले रहो तुम लाल! ::वेदने, तू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।
नई किरण छोडी है तूनेतू ने, तू वह हीर-कनी, सजग रहूँ मैं, साल हृदय में, ओ प्रिय -विशिख-अनी। अनी!ठंडी होगी देह न मेरी, रहे दृगम्बु -सनी, तू ही उष्ण उसे रखेगी रक्खेगी मेरी तपन-मनी। मनी!आ, अभाव की एक आत्मजे, और अदृष्टअदृष्टि-जनी। जनी! तेरी ही छाती है सचमुच उपमोचितस्तनी। उपमोचितस्तनी!अरी वियोग -समाधि, अनोखीअनोंखी, तू क्या ठीक ठनी, अपने को , प्रिय को, जगती को देखूँ खिंची-तनी।
मन-सा मानिक मुझे मिला है तुझमें उपल-खनी,
तुझे तभी त्यागूँ जब सजनी, पाऊँ प्राणधनी ॥१॥ प्राण-धनी।
कहती मैं चातकि, फिर बोल। ये खारी आँसू की बूँदे दे सकती यदि मोल। लिख कर सकते हैं क्या मोती भी उन बोलो की तोल? फिर भीलोहित लेख, फिर भी, इस झाड़ी के झुरमुट में रस घोल। डूब गया है दिन अहा!श्रुतिब्योम-पुट लेकर पूर्व स्मृतियाँ खड़ी यहाँ पट खोल। सिन्धु सखि, देख, आप ही अरुण हुये हैं उनके पांडु कपोल। जाग उठे हैं मेरे सौतारक-सौ स्वप्न स्वंय हिल-डोल, और सन्न हो रहे, सो रहे, ये भूगोल-खगोल। न कर वेदना-सुख से वंचित बढा हृदय-हिंदोल, जो तेरे सुर में सो मेरे उर में कल-कल्लोल ॥२॥ बुद्बुद दे रहा!
निरख सखी ये खंजन आये। दीपक-संग शलभ भीफेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये। फैला उनके तन का आतप:जला न सखि, मन-जीत सत्व से सर-सरसायेतम को, घूमे वे इस ओर वहाँ ये यहाँ हंस उड़ छाये। क्या देखना - दिखानाकर के ध्यान आज इस जन :क्या करना है प्रकाश का निश्चय वे मुस्काये, फूल उठे हैं कमल, अधर से ये बंधूक सुहाये। स्वागत, स्वागत शरद, भाग्य से मैनें दर्शन पाये, नभ ने मोती वारे लो, ये अश्रु अर्ध्य भर लाये ॥३॥ हमको?
शिशिर, न फिर गिरि वन में।
जितना मांगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में।
कितना कंपन तुझे चाहिए, ले मेरे इस तन में,
सखी कह रही, पांडुरता का क्या अभाव आनन में।
वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस भाजन में,
तो मोती-सा मैं अकिंचना रकखूँ उसको मन में।
हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं - अपने इस जीवन में,
तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में ॥४॥
यही आता है इस मन में।
छोड़ धाम-धन जा कर मैं भी रहूँ उसी वन में।
प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर,
व्यथा रहे पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर।
हर्ष डूबा हो रोदन में,
यही आता है इस मन में,
बीच बीच में कभी देख लूँ मैं झुरमुट की ओट,
जब वे निकल जायँ तब लेटूँ उसी धूल में लोट।
रहें रत वे निज साधन में,
यही आता है इस मन में।
जाती-जाती, गाती-गाती, कह जाऊँ यह बात,
धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात।
प्रेम की ही जय जीवन में,
यही आता है इस मन में ॥५॥
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