अवधि होगई पूर्ण अन्त में,
सुयश छा रहा है दिगन्त में।
स्वजनि, धन्य है आज की घड़ी,तदपि खिन्न-सी तू यहाँ खड़ी!त्वरित आरती ला, उतार लूँ,पद दृगम्बु से मैं पखार लूँ।चरण हैं भरे देख, धूल से,विरह-सिन्धु में प्राप्त कूल-से।विकट क्या जटाजूट है बना,भृकुटि युग्म में चाप-सा तना।वदन है भरा मन्द हास से,गलित चन्द्र भी श्री-विलास से।
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